पटना : उत्तर प्रदेश में किसानों के साथ जो कुछ हुआ उसने हर किसी के दिल को झकझोर दिया. सबसे ज्यादा ठेस स्वर्ग में बैठे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की आत्मा को पहुंचा होगा. बापू का दिल आज बिहार के चंपारण सत्याग्रह के उस पहले सवाल के साथ रो रहा होगा कि जिन किसानों के लिए उन्होंने अंग्रेजी हूकूमत की ईंट से ईट बजा दी थी, वो आज आजाद भारत में घुंट-घुंटकर जीने को मजबूर है. चंपारण में जब अंग्रेज, किसानों को मजबूरन खेती करने के लिए कहते थे तो वह बापू को नागवार गुजर गया था. चंपारण सत्याग्रह ने देश की पूरी संरचना बदल दी. अंग्रेजी हुकूमत को देश से भगा दिया.
विडंबना यह है कि आज उसी किसान को बापू द्वारा दिए गए देश में उनके नेता-शासक सत्ता में चूर लोग गाड़ियों के नीचे कुचल रहे हैं. चंपारण के भितिहरवा में बापू की वह आत्मा, जो आज भी देश की आत्मा कही जाती है, किसी कोने में बैठकर रो रही होगी कि हम चंपारण आए ही क्यों? इससे बेहतर तो अंग्रेजी हुकूमत थी जो किसानों से खेती तो करवाती थी, बदले में टैक्स लेती थी. यहां तो खेती भी करवा रही है, मुआवजा भी नहीं मिल रहा है और मांगने पर तो अब जान ले लिया जा रहा है. देश की आत्मा बापू के संकल्पों के साथ आज निश्चित तौर पर रो रही है और यही वजह है कि बिहार सवाल पूछ रहा है.
उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलन ने बिहार तक की राजनीति की तपिश बढ़ा दी और किसानों के मन की कसक भी. 1917 में जब बापू चंपारण गए थे तो संकल्प यही था कि किसानों को अंग्रेजी दास्तां से आजादी दिलानी है. लेकिन जिस दास्तां में आज के किसान फंस गए हैं उससे आजादी कैसे मिलेगी? इसका कोई विकल्प फिलहाल नहीं दिख रहा है. दरअसल बिहार का यह दर्द पंजाब के उस सियासत तक पहुंचा हुआ है, जिसमें जीवन की गाड़ी चलाने के लिए बिहार का एक पलायन पंजाब तक होता है. बापू के बिहार आने और बिहार का पंजाब जाने का कोई राजनीतिक समीकरण नहीं है और ना ही कोई ऐसा प्रसंग.
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हालांकि एक संबंध ऐसा है जो पंजाब और बिहार से ही है. बिहार अपनी मेहनत से पंजाब की वह खेती करता है जिससे पंजाब के खेतों में फसल लहलहाती है. बिहार के काम करने वाले लोगों की जीवन की गाड़ी चलती है. लेकिन अभी तो सब कुछ बेपटरी हो रखा है. कोविड-19 से देश के सामने एक बड़ी आर्थिक संकट खड़ी हुई जो आज भी आजीविका के लिए प्रश्न चिन्ह बनी है. हालांकि पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने नीतीश कुमार से यह कहा था कि बिहार के जो लोग पंजाब में हैं उनको आप बिहार मत बुलाइए, उनके रहने खाने का हर इंतजाम सरकार यहां करवा देगी. पंजाब की खेती होती रहे इसलिए यह जरूरी है. लेकिन आज जो कुछ खेती के लिए हो रहा है उसमें बिहार बापू के उस खेत की मेड के किनारे बैठ कर के सोच रहा है कि जीवन की गाड़ी चले कैसे. क्योंकि खेती करने के बाद जो कुछ बाहर आएगा अगर उसकी मांग करने जाइएगा तो उन किसानों के ऊपर नेता गाड़ी चलवा देंगे.
एक सवाल बार बार उभर रहा है कि आखिर कागज पर लिखी बात को किसानों के जीवन की किस्मत सरकार क्यों बना रही है? अगर कागज पर कुछ लाइनें मिटा देने से किसानों की किस्मत जग जाती है, या किसानों की किस्मत इस आधार पर चल जाती है कि उनका मन मान जाता है, तो फिर इस में दिक्कत क्या है? सवाल यह उठ रहा है कि बापू ने इन्हीं किसानों के मान के लिए चंपारण तक की दूरी तय करती थी. लाठी खाए, जेल गए लेकिन किसानों की बात नहीं छोड़ी. बापू वाले देश की जो सरकार है आज उन्हीं किसानों को लाठी मार रही है, जेल भेज रही है. लेकिन किसानों की बात नहीं मान रही है.
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चंपारण के सत्याग्रह वाले बापू यह बैठ करके सोचते रहे कि जो देश छोड़ करके गए हैं उस में हो क्या रहा है? देश चलाने वाले लोग सोचते यही रहे कि हमको देना यही है क्योंकि बापू कभी रहे होंगे, आज थोड़े ही उनकी जरूरत है. लेकिन जरा सत्ता के हुक्मरान इस बात को बेहतर तरीके से समझ लीजिए. जिन किसानों की आह ने अंग्रेजी हुकूमत की धज्जियां उड़ा दी वही किसान कुर्सी बहुत दिनों तक रहने नहीं देंगे. क्योंकि अगर किसानों के मन की बात रुकी नहीं तो सत्ता के शीर्ष पर बैठे हर नेता के बगल में खड़े व्यक्ति किसी न किसी किसान का बेटा है. कहीं न कहीं खेती की माटी से ही जुड़ कर आया है. जिसमें आज किसानों की जिंदगी को मटिया मेट किया जा रहा है.
उत्तर प्रदेश में किसानों के साथ हुई घटना ने सवाल यह खड़ा किया है कि मनमानी पर आखिर लोग क्यों उतरे हुए हैं? किसान आंदोलन जब से चल रहा है तब से कई किसानों की जान गई है, उसके मुआवजे का भी ऐलान हुआ है. उत्तर प्रदेश में भी मरे हुए किसानों के परिजनों को उनके मरने का मुआवजा दे दिया जाएगा. सरकारी नौकरी और कुछ लाख रुपया. लेकिन सवाल यह है कि इस समझौते के बाद सियासत के जिन लोगों के घरों में मिठाई पटी होगी, लड्डू खाए गए होंगे उन्हें इस बात को सोच लेना चाहिए कि जिनके घरों में मौत हुई है वह 13 दिनों तक सिर्फ चावल का लड्डू बनाकर पिंडदान करते रहेंगे.
अब जरा देश के संजीदा राजनीति को यह समझ लेना चाहिए कि कागज की कुछ लाइनों को मिटा देने से अगर जीवन बच जाए तो उसे बचाना जरूरी है. क्योंकि बापू के सपनों का देश टुकड़े टुकड़े में तो हो गया है, समेट जनता रही है, समेट किसान रहे हैं. बस मन का करने के लिए यहां की सरकार बैठी है. अब योगी हैं मोदी हैं या फिर कोई और है, यह सभी लोग सोच लें कि वह कौन हैं? लेकिन विचार जरूर करें कि जिन लोगों को रौंद दिया गया है वह बापू के विचारों के किसान हैं. बाबू के मान हैं. बाबू के सम्मान हैं. इन्हीं के लिए बापू ने चंपारण सत्याग्रह भी किया था और बिहार से यह बातें भी रखी थी कि देश को आगे किसान ही ले जाएगा.
शास्त्री जी इससे दो लाइन और आगे जाकर 'जय जवान जय किसान का नारा' दे दिए. लेकिन आज की सरकार जरा नारे पर गौर कर ले कि 'मर किसान-जल किसान'. किसान जलाया जा रहा है, किसकी श्रद्धांजलि है? और किसको समर्पण है? यह भी देख लेना होगा क्योंकि सत्ता का अमृत पीकर के जो लोग गद्दी पर बैठे हैं, शायद भूल गए हैं कि जिन लोगों ने देश को आजादी दी थी आज उनका अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है. लेकिन जो मृत हो गए हैं उनके बारे में जब लिखा जाएगा तो कुछ नामों को घृणा के भाव से रखकर महोत्सव मनाया जाएगा. विचार करिए, जरूरी भी है और देश के लिए जरूरत भी.